लॉक डाउन के बाद मार्मिक सफर..
न घर के ..न घाट के ..,सत्ता और इस व्यवस्था के मारे हुए लोग हैं
सड़कों पर ग़रीबों के जो हुज़ूम जिनमें युवा स्त्री-पुरुष, उनके मासूम बच्चे, बूढ़े परिजन शामिल हैं, अपने पुराने ठिकानों की तरफ़ पैदल ही बढ़े जा रहे हैं, वे कोरोना के नहीं, इस सत्ता और इस व्यवस्था के मारे हुए लोग हैं।
क्या मध्यवर्ग भी कभी ऐसी यात्रा करता है कि 1000 किलोमीटर पैदल बिना खाए पिए चलता रहे? वे किसी अनजाने डर से भाग रहे हैं
Lock down होते ही
देश की इस विशाल श्रमशील आबादी के पांवों तले से ज़मीन खिसक जाती है। कोई बताएगा, फैक्ट्रियों की काल-कोठरियों, किराये के मुर्गी खानों जैसे दड़बों में पड़े रहने वाले इन लोगों के लिए क्या इंतज़ाम थे? फैक्ट्रियों से लतिया दिए गए इन लोगों से पूछिए, शंख-थाली बजाने वालों ने उनकी तनख्वाएं तक मार लीं। बेकाम, बेछत हो गए लोग पुलिस की मार खाने का जोख़िम उठाकर भी अपने गाँवों की तरफ़ पैदल ही न निकल पड़ते तो क्या करते?
नेतृत्व की परीक्षा संकटकाल में ही होती है. इस संकट काल में कोई नेता जनता का मजाक उड़ा रहा है, कोई रामायण देखते हुए अपनी फोटो जारी कर रहा है, कोई घंटी बजाते हुए वीडियो बनवा कर जारी कर रहा है, कोई आरती और श्लोक शेयर कर रहा है. यही इनका महान नेतृत्व है.
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