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Sunday, February 2, 2020

कामसू‍त्र और खजुराहो मंदिर के संबंध( Kamasutra vs khajuraho)


कामसू‍त्र और खजुराहो मंदिर के संबंध

कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्र ( en:Sexology) ग्रंथ है। यह विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है।
महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का शृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पदित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं

तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका 'रतिमंजरी' में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है।
रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है—चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है— सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अन्तर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामूसूत्र गुप्तकाल का है। 
काम और आकर्षण की इच्छा ही विश्व वासना कहलाती है। अविद्या, आकर्षण आदि सभी वासनाओं के मूल में काम मौजूद है। इसी प्रकार से वेदों, पुराणों में भी कार्य को आदिदेव कहा गया है।
           काम शुरुआत में पैदा हुआ। पितर, देवता या व्यक्ति उसकी बराबरी न कर सके।
           शैव धर्म में पूरे संसार के मूल में शिव और शक्ति का संयोग माना जाता है।
           यही नहीं शैव मत के अंतर्गत आध्यात्मिक पक्ष में आदि वासना पुरुष और प्रकृति के संबंध में प्रकाशित है तथा वही भौतिक पक्ष में स्त्री और पुरुष के संभोग में परिणत है।
           पूरी दुनिया को शिव पुराण और शक्तिमान से पैदा हुआ शैव तथा शाक्त समझता है। पुरुष और स्त्री के द्वारा पैदा हुआ यह जगत स्त्री पुंसात्मक ही है। ब्रह्म शिव होता है तथा माया शिव होती है। पुरुष को परम ईशान माना जाता है और स्त्री को प्रकृति परमेश्वरी। जगत के सारे पुरुष परमेश्वर है और स्त्री परमेश्वरी है।
           इन दोनों का मिथुनात्मक संबंध ही मूल वासना है तथा इसी को आकर्षण और काम कहा जाता है।

काम एक शक्ति है और वह बहुत ज्यादा चंचल होती है। इस शक्ति का जब भी उन्नयन होता है तब तक भावों और संवेगों की उत्पत्ति होती है।
           मनुष्य की जो इच्छाएं ग्रंथि का रूप ले लेती है वहीं वासना कही जाती है। वासनाओं के इसी वेग को संवेग कहते हैं। व्यक्ति के दिल में अनुकूल या प्रतिकूल वेदना ही उत्पत्ति ही भाव कहलाती है। यही भाव बढ़ते-बढ़ते संवेग का रूप धारण कर लेता है।

विषयों की स्मृति से अथवा सत्ता से या फिर कल्पित विषयों से भी डर. प्रेम आदि के संवेग जागृत हुआ करते हैं। यह बात वाकई अनुभवसिद्ध है कि विषयों के सन्निकर्ष से कोई न कोई भाव अथवा संवेग जरूर पैदा होता है।
           इसका समर्थन गीता में भी किया गया है कि संग से काम होता है। जितने भी वासना व्यूह है सभी के साथ संवेग जुड़ा रहता है। हमारी चित्त वृत्ति के भावमय. ज्ञानमय और क्रियामय- तीन ही रूप होते हैं। ज्ञान के कारण ही भाव और संवेग जागृत होते हैं।

मनचक्र में सोई हुई अतुल कामशक्ति, प्रेरक स्फुलिंगों को पाकर ही जागृत होते हैं। बाह्य अथवा आभ्यंतर उद्दीपकों से पैदा संवेदनाएं और ज्ञानात्मक मनोभाव ही कामशक्ति के प्रेरक स्फुलिंग होते हैं। इनसे प्रेरणा पाकर ही संवेग के साथ कामशक्ति बहिर्मुख होती है।
           मनुष्य के विचार चोटी पर होते हुए भी उसका हृदय हमेशा नई संवेदनाओं की तलाश में नीचे उतर आता है। हर मनुष्य को भावों को बदलने की इच्छा होती है। मनुष्य स्वभाव से ही बदलाव, सुंदरता और नएपन को चाहता है।
           अगर गौर से देखा जाए तो नवीनता का दूसरा नाम अभिरुचि है।

जहां पर नवीनता है वहीं रमणीयता रहती है।
           रमणीयता का वही रूप है जो पल-पल में नएपन को प्राप्त करता है। संवेग के कारण ही हमारी क्रियाएं प्रतिक्षण बदला करती है।

पहले तो उत्सुकता जागृत होती है और इसके बाद तृष्णा जागृत होती है। जिस समय व्यक्ति के दिल में संवेग पूरी तरह से जागृत हो जाता है उसी समय उसे 1 दिन 1 साल के जैसा लगता है।
           जब संवेग के अवरोधक पूरी तरह अभिव्यक्ति नहीं होने देते तब मन में बेचैनी होने लगती है, चिंताएं बढ़ जाती है. मन में उथल-पुथल होने लगती है। सामाजिक नियमों के अनुरूप काम का निरोध-अवरोध तो जबरदस्ती करना पड़ता है।

जबकि यह अनुभव समाज युग-युग से करता आ रहा है कि काम वासना पर पूरी तरह से काबू नहीं पाया जा सकता। समाज का नियंत्रण यहीं तक सीमित रहता है कि वासना शारीरिक क्रिया में परिणत न होने पाए। मानसिक द्वन्द्व भले ही मजबूत होता है।
           मनुष्य जिन वासनाओं को निरोध से दबाना चाहता है वह कभी नहीं दबती, बल्कि सुलगने लगती है और किसी न किसी रूप में अपना असर डालती रहती है। असल बात यह है कि जिस बात को मना किया जाता है उसी को करने के लिए मन में बेचैनी बढ़ती रहती है
आचार्य वात्स्यायन नें शतायुर्वे पुरुष लिखकर इस बात को साफ किया है कि कामसूत्र का मकसद मनुष्य को काम-वासनाओं की आग में जलाकर रोगी और कम आयु का बनाना नहीं बल्कि निरोगी और विवेकी बनाकर 100 साल तक की पूरी उम्र प्राप्त करना है।
           लंबी जिंदगी जीने के लिए सबसे पहला तरीका सात्विक भोजन को माना गया है। सात्विक भोजन में घी, फल, फूल, दूध, दही आदि को शामिल किया जाता है। अगर कोई मनुष्य अपने रोजाना के भोजन में इन चीजों को शामिल करता है तो वह हमेशा स्वस्थ और लंबा जीवन बिता सकता है।
          सात्विक भोजन के बाद मनुष्य को लंबी जिंदगी जीने के लिए पानी, हवा और शारीरिक परिश्रम भी मह्तवपूर्ण भूमिका निभाते है। रोजाना सुबह उठकर ताजी हवा में घूमना बहुत लाभकारी रहता है। इसके साथ ही खुले और अच्छे माहौल में रहने और शारीरिक मेहनत करते रहने से भी स्वस्थ और लंबी जिंदगी को जिय़ा जा सकता है।
          इसके बाद लंबी जिंदगी जीने के लिए स्थान आता है दिमाग को हरदम तनाव से मुक्त रखने का। बहुत से लोग होते हैं जो अपनी पूरी जिंदगी चिंता में ही घुलकर बिता देते हैं। चिंता और चिता में सिर्फ एक बिंदू का ही फर्क होता है लेकिन इनमें भी चिंता को ही चिता से बड़ा माना गया है। क्योंकि चिता तो सिर्फ मरे हुए इंसानों को जलाती है लेकिन चिंता तो जीते जी इंसान को रोजाना जलाती रहती है। इसलिए अपने आपको जितना हो सके चिंता मुक्त रखों तो जिंदगी को काफी लंबे समय तक जिया जा सकता है।
          इसके बाद लंबी जिंदगी जीने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना भी बहुत जरूरी होता है। योगशास्त्र के अनुसार ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः अर्थात ब्रह्मचर्य का पालन करके ही वीर्य को बढ़ाया जा सकता है और वीर्ये बाहुबलम् वीर्य से शारीरिक शक्ति का विकास होता है। वेदों में कहा गया है कि बुद्धिमान और विद्वान लोग ब्रह्मचर्य का पालन करके मौत को भी जीत सकते हैं।
          सदाचार को ब्रह्मचर्य का सहायक माना जाता है। जो लोग निष्ठावान, नियम-संयम, संपन्नशील, सत्य तथा चरित्र को अपनाए रहते हैं, वही लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए लंबी जिदंगी को प्राप्त करते हैं। सदाचार को अपनाकर कोई भी मनुष्य अपनी पूरी जिंदगी आराम से बिता सकता है।


खजुराहो में देवी-देवताओं के मंदिर हैं लेकिन इन्हें सबसे ज्यादा जाना जाता है तो कामसूत्र पर आधारित विभिन्न मुद्राओं में मैथुनरत मूर्तियों के लिए। हालांकि खजुराहो के मंदिर अकेले ऐसे मंदिर नहीं।

भारत में ऐसे और भी मंदिर हैं जिनमें कामसूत्र से प्रेरित रतिरत मूर्तियां हैं जैसे छत्तीसगढ़ में भोरम देव का मंदिर, हिमाचल में चंबा मंदिर, उत्तरांचल के अल्मोड़ा में नंदा देवी मंदिर, उड़ीसा में कोणर्क और लिंग राज का मंदिर, राजस्थान के रणकपुर में जैन मंदिर, बाड़मेर जिले में स्थित किराडू के मंदिर और कर्नाटक के हम्पी में मनुमंत का मंदिर।
मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो का इतिहास काफी पुराना है। खजुराहो का नाम खजुराहो इसलिए पड़ा क्योंकि यहां खजूर के पेड़ों का विशाल बगीचा था। खजिरवाहिला से नाम पड़ा खजुराहो। इब्नबतूता ने इस स्थान को कजारा कहा है, तो चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी भाषा में इसे ‘चि: चि: तौ’ लिखा है।

अलबरूनी ने इसे ‘जेजाहुति’ बताया है, जबकि संस्कृत में यह ‘जेजाक भुक्ति’ बोला जाता रहा है।

चंद बरदाई की कविताओं में इसे ‘खजूरपुर’ कहा गया तथा एक समय इसे ‘खजूरवाहक’ नाम से भी जाना गया। लोगों का मानना था कि इस समय नगर द्वार पर लगे दो खजूर वृक्षों के कारण यह नाम पड़ा होगा, जो कालांतर में खजुराहो कहलाने लगा।

अधिकतर धर्मों ने सेक्स का विरोध कर इसका तिरस्कार ही किया है जिसके चलते इसे अनैतिक और धर्मविरुद्ध कृत्य माना जाता है। धर्म, राज्य और समाज ने स्त्री और पुरुष के बीच के संपर्क को हर तरह से नियंत्रित और सीमित करने के अधिकतर प्रयास किए। इसके पीछे कई कारण थे।

इस प्रतिबंध के कारण ही लोग इस पर चर्चा करने और इस पर किसी भी प्रकार की सामग्री पढ़ने, देखने आदि से कतराते हैं लेकिन दूसरों से छिपकर सभी यह कुकृत्य  करते हैं।
सेक्स न तो रहस्यपूर्ण है और न ही पशुवृत्ति। सेक्स न तो पाप से जुड़ा है और न ही पुण्य से। यह एक सामान्य कृत्य है लेकिन इस पर प्रतिबंध के कारण यह समाज के केंद्र में आ गया है। पशुओं में सेक्स प्रवृत्ति सहज और सामान्य होती है जबकि मानव ने इसे सिर पर चढ़ा रखा है।

मांस, मदिरा और मैथुन में कोई दोष नहीं है, दोष है आदमी की प्रवृत्ति और अतृप्ति में। कामसुख एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, लेकिन मनुष्य ने उसे अस्वाभाविक बना दिया है
यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर की बनावट और अलंकरण भी अत्यंत वैभवशाली है। कंदारिया महादेव मंदिर का प्रवेश द्वार 9 शाखाओं से युक्त है, जिन पर कमल पुष्प, नृत्यमग्न अप्सराएं तथा व्याल आदि बने हैं।

सरदल पर शिव की चारमुखी प्रतिमा बनी है। इसके पास ही ब्रह्मा एवं विष्णु भी विराजमान हैं। गर्भगृह में संगमरमर का विशाल शिवलिंग स्थापित है
वात्स्यायन के कामसूत्र का आधार भी प्राचीन कामशास्त्र और तंत्रसूत्र है। शास्त्रों के अनुसार संभोग भी मोक्ष प्राप्त करने का एक साधन हो सकता है, लेकिन यह बात सिर्फ उन लोगों पर लागू होती है, जो सच में ही मुमुक्षु हैं।
खजुराहो का भ्रमण जरूर करें, हमारी संस्कृति ने जो दिया है वह किसी और संस्कृति में अंकित नहीं है, 
आज की युवा पीढ़ी अंधा प्रेम में दोड रहीं हैं, जहाँ प्रेम कम, वासना ज्यादा हावी है।  यह कहना उचित नहीं होगा कि हम अपने विचारों को थोप रहे हैं ,लेकिन आप आज समाज में देखें तो यही पाएंगे पाएंगे ।

आप घुमक्कड़ प्रवृत्ति के हैं  और आप घूमते हैं  तो आपने जरूर ही देखा होगा  और नहीं देखा होगा । तो आप  सामाजिक  आधार पर टेलीविजन  ,धारावाहिक  और न्यूज़  पेपर से  देख सकते हैं  ।

खजुराहो मंदिर और कामसूत्र के पाठ , पाठकों से कितनी दूर हो गए हैं, हमारा समाज  समय के अभाव में मशीन बनता जा रहा है।  
कामसूत्र और खुजराहो को एक साथ दिखाने का बस इतना मकसद था की हमारे समाज में भौतिक सुख को समझ कर उसके साथ वैज्ञानिकता को भी देखें, जिससे हमारा जीवन सफल रहे ,यह सब चीजें हमारे पूर्वजों ने देख लिया था और उसी को  संदर्भित किया था!

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